साहित्य और मोडिया की तमाम विधाएँ एवं कलाएँ मनुष्य की हँसी-खुशी और संघर्षमय साक अभिव्यक्ति का प्रभावशाली माध्यम हैं। प्रेमचंद के 'गोदान', जैनेंद्र के 'त्यागपत्र', अज्ञेय के 'शेखर एक जीवनी', कृष्णा सोबती के 'ऐ लड़की', चित्रा मुद्गल के 'आवां' और मैत्रेयों पुष्पा के 'चाक' से लेकर शरणकुमार लिम्बाले के' अक्करमाशी', तुलसीराम के 'मुर्दहिया' और ओमप्रकाश वाल्मीकि के 'जूठन' तक को जरा गौर से पढ़ें तो सभी में हर्ष और विषाद का गहन चित्रण मिलेगा। अंतर होगा तो सिर्फ सर्जकों के वर्ग का, उनकी सोच-समझ और अभिव्यक्ति कौशल का। अपने-अपने तरीके से हर वर्ग के लोग संघर्ष कर रहे होते हैं, कभी अपनों से, कभी परायों से और कभी-कभी अपने आप से भी। इस संघर्ष को हर वर्ग से उभरे सर्जकों के माध्यम से पाठकों के सामने रखने का बड़ा काम वार्ताकारों को करना होता है, लेकिन ऐसे लोग कम ही होते हैं, जिन्होंने वह स्तर अर्जित किया हो, जिनसे वार्ता का कोई मतलब हो। वार्ता पड़कर लगना चाहिए कि हमने कुछ सार्थक पढ़ा और कुछ ऐसा जाना, जो इसके पहले जानते नहीं थे। जानते थे तो समझते नहीं थे और समझते थे तो इस तरह नहीं समझते थे, जिस तरह इसे पढ़कर जान-समझ सके। कोई वार्ता पाठक को जानकार बनाए तो यह उसका एक गुण भले ही होगा, बड़ा गुण नहीं होगा। बड़ा गुण यह होगा कि वह पाठक को समझदार भी बनाए।
कोई भेंटवार्ता यह काम कर सके, तभी कह सकते हैं कि उसने सृजन का दर्जा पा लिया है, एक ऐसी सर्जना, जो चुने गए व्यक्ति के जीवन और कर्म से जुड़ी कुछ बंद खिड़कियाँ तो खोले हो, उसे पढ़कर पाठक को भी कुछ बंद खिड़कियाँ खुल जाएँ, जिनसे उसे ताजा हवा मिल सके। यह काम रचनात्मक विधाएँ भी वमुश्किल कर पाती हैं, किसी वार्ता के लिए तो यह काम और भी मुश्किल है, लेकिन जिस काम में मुश्किलें न हों तो उसकी अहमियत ही क्या। सो, सृजनात्मक वार्ता कर पाना उतना आसान नहीं, जितना लगता है। पत्र-पत्रिकाओं और टीवी में वार्ताएँ प्रायः छपती और होती रहती हैं। अनेक लेखक-पत्रकार उनके बल पर ही 'टाइम पास' कर रहे होते हैं, जिनमें सैंजोकर रखने और बार-बार पढ़ने-देखने-सुनने लायक़ अक्सर कुछ होता ही नहीं। पाठक को प्रभावित कर सकने लायक़ वार्ताएँ कम हो होती हैं, जैसे समुद्र में गिरने वाली बारिश की बूँदें, जिनमें कुछ को ही मोती बन पाने का सौभाग्य हासिल होता है। वैसी नामवर सीपें भी कम ही होती हैं, जिनके मुँह से ऐसे मोती झरते हों, जिनसे जीवन के कुछ चमकदार रहस्य खुलते हों। भूमि से निकले रत्नों जैसी होती हैं सृजनात्मक वार्ताएँ, चमकदार और बहुमूल्य, कभी-कभी अमूल्य भी। श्रीकांत वर्मा, कृष्णा सोबती और मनोहरश्याम जोशी की वार्ताओं में ऐसे गुण मिलते हैं।
नामवर सिंह, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर जैसे सर्जक अच्छी कविता-कहानी के प्रतिमान बताते रहे, लेकिन वैसी रचना खुद न दे पाए तो उन्हें अक्षम नहीं कह सकते। सृजन की ऊँचाइयों को जानना-समझना एक गुण होता है तो उनका स्पर्श करना दूसरा।
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