हानी की तुलना में बाल उपन्यास की दुनिया बड़ी है। देर तक क बच्चे को रिझाने और अपने में रमाकर रखनेवाली। और साथ-ही-साथ, काल के भीतर एक लंबी, रोमांचक यात्रा करानेवाली, जिसकी आह्लादकारी स्मृति देर तक बाल पाठकों के मन पर छाई रहती है। बल्कि कहना चाहिए, किसी अच्छे बाल उपन्यास की दुनिया भी बहुत हद तक बच्चों की अपनी दुनिया ही हो जाती है। उपन्यास पूरा पढ़ लेने के बाद भी उस दुनिया के भीतर बाल पाठकों की आवाजाही अनवरत चलती रहती है, और कई बार तो वह बहुत लंबे अरसे तक चलती रहती है।
मुझे बचपन में 'चंदा मामा' पत्रिका में पढ़े गए ऐसे बाल उपन्यास आज भी याद हैं, जो अब साठ बरस बाद भी जब-तब मुझे अपने साथ बहा ले जाते हैं। तब एकाएक मैं अपने आपको आठ-दस साल के एक भोले, जिज्ञासु बच्चे में बदलता देखता हूँ, जिसके भीतर उस दुनिया की स्मृति भर से एक रोमांच सा तारी हो जाता है। और फिर वहाँ से लौट पाना आसान नहीं होता।
यही हाल किशोरावस्था में प्रेमचंद के 'निर्मला', 'वरदान', 'गवन', 'कर्मभूमि' सरीखे उपन्यासों को पढ़ने पर होता था। ये बड़ों के लिए लिखे गए उपन्यास थे, पर मुझ किशोर को यह समझ कहाँ थी। वह तो उन्हीं में डूबता था, और डूबते- डूबते इतना डूब जाता था, कि आज सत्तर बरस की उम्र में भी उनसे बाहर नहीं आ पाया। बल्कि कभी-कभी तो मन करता है, सारे काम-धाम एक ओर रखकर, एक बार फिर से उसी लय, उसी तल्लीनता से आकंठ डूबकर उन्हें पढूँ। फिर से उन्हें जिऊँ। साथ-ही-साथ अपनी उस भावुक किशोरावस्था को भी फिर से जी लूँ, जो बहुत-बहुत सच्ची और निर्मल थी। यही वजह है कि उपन्यास में कोई करुण दृश्य आते ही मेरी आँखें आँसुओं से तर हो जाती थीं।
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