जनवरी-फ़रवरी 2013 का प्रस्तुत अंक अपने रचनात्मक कलेवर में समकालीन भारतीय साहित्य के आम अंकों की तरह ही है। कुछ कविताएँ तथा कहानियाँ, दो-तीन निबंध, एक संस्मरण और कुछेक समीक्षाएँ। यह देखकर कुछ पाठकों की तरह मुझे भी हताशा होती है कि आज हम विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में जो सामग्री पढ़ रहे हैं या जिन पुस्तकों को फ़ौरी तौर पर उलट-पलटकर देख लेते हैं-क्या उनकी गुणवत्ता पहले लिखी रचनाओं के मुकाबले कमतर होती जा रही है। पहले पढ़ी जानेवाली रचनाएँ या पूर्ववर्ती पीढ़ी द्वारा लिखी गई रचनाओं का प्रभाव हम पर आज की रचनाओं के मुक़ाबले कहीं अधिक क्यों होता था ? क्या पहले के पाठक अधिक संवेदनशील थे, या तब लिखी गई रचनाएँ अधिक प्रभावी या भावपूर्ण होती थीं। क्या एक कारण यह नहीं हो सकता है कि समय आज इतनी तेजी से बदल रहा है और वह हमारी मानसिकता को तेजी से बदलता जा रहा है कि हम समय के साथ क़दमताल नहीं कर पा रहे हैं।
तेजी से बदलते इस दौर को और आज के भागमभाग को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित ओड़िया की अग्रणी और यशस्वी लेखिका श्रीमती प्रतिभा राय की कहानी 'क्रेडिट कार्ड' में लक्ष्य किया जा सकता है-जिसमें पीढ़ियों के अंतद्वंद्व, टकराव और फिर दुराव का बड़ा रोचक मार्मिक एवं प्रामाणिक आकलन है। यह कहानी कल या आज लिखी जाने वाली कहानी से सर्वथा अलग, मानवीय संवेदना से जुड़ी माँ और बेटी के नाभि-नाल संबंध को एक नया संदर्भ प्रदान करती है। उक्त संबंधों को खारिज करती हुई यह कहानी इसे किसी सकारात्मक एवं निर्णयात्मक सोच से भी जोड़ती है। हमारे सामाजिक जीवन संबंधों को लगातार खोखला करने वाला यह कौन-सा दवाव है जो पुरानी पीढ़ी के विश्वास को विचलित ही नहीं कर रहा है बल्कि उसे अप्रिय और वांछित निर्णय लेने को बाध्य कर रहा है?
यदि प्रतिभा जी से पहले की एक और पीढ़ी की लेखिका और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता आशापूर्णा देवी (1909-1995 ई.) की चर्चित कहानी 'सीमा रेखा' की सीमा की बात करें तो स्पष्ट होगा कि तब की पीढ़ी में किस तरह परिवार की मर्यादा-रक्षा के लिए घर की बेटी अपने पति की आकस्मिक मृत्यु की खबर को भी परिवारवालों से छुपाए रखती है ताकि घर में संपन्न हो रहे वैवाहिक आयोजन में कोई विघ्न न हो। यह सच है कि किसी भी दौर में न तो सभी कहानियाँ एक समान लिखी जाती रही हैं, न सभी कथाकार (स्त्री हों या पुरुष) एक-जैसी रचना करने की स्थिति में होते हैं। लेकिन सवाल यह है कि आज अकूत कवियों की भीड़ में और हजारों की संख्या में प्रकाशित होने वाली कृतियों में, हम पाठकों को कितनी ऐसी रचनाएँ मिल पाएँगी- जो संबंधित भाषा में अपनी पहचान दर्ज कर सकेंगी और देर-सवेर अनूदित होकर दूसरी भाषा के पाठक वर्ग द्वारा स्वीकार्य एवं समादृत हो सकेंगी।
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