ओड़िया और गुजराती में अंक निकालना किसी तुलनात्मक समृद्धि को रेखांकित करना नहीं है। यदि भाषा-केंद्रित अंक निकालना हो तो किसी भी प्रमुख भाषा का चयन किया जा सकता है।
उक्त दोनों भाषाओं पर केंद्रित अंक निकालना संयोगवश ही हुआ। समकालीन भारतीय साहित्य में इन दो भाषाओं की रचनाओं का बाहुल्य था और वर्षों से स्वीकृत रचनाएँ रखी हुई थीं। अगर उन्हें नियमित अंकों में प्रकाशित किया जाता तो उनके प्रकाशन में और भी कई वर्ष लग जाते, इधर नई रचनाओं का आना भी जारी रहता। ऐसी स्थिति से बचने के लिए इनका सम्मिलित अंक निकाला गया। शेष भाषाओं में भी यही स्थिति बनी तो यही प्रणाली अपनाना अधिक संगत लगता है।
एक ओर यह प्रसन्नता का विषय है कि ओड़िया और गुजराती के अनुवादक अत्यंत उत्साही हैं और समय की नब्ज को पहचानते हैं, वहीं इस बात की चिंता भी है कि भारत की कई भाषाओं में अनुवादक कम हैं या इस अनिवार्य काम में कम रुचि लेते हैं।
यहाँ विशेष तौर पर पूर्वोत्तर की भाषाओं की चर्चा करनी है। वहाँ की एक-दो भाषाओं को छोड़कर शेष भाषाओं का आमतौर पर कम, और कहें तो लगभग नगण्य अनुवाद हो रहा है।
यह केवल अनुवाद का ही मामला नहीं है, बल्कि राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी वह पूरा भू-भाग अपनी उपेक्षा के कारण अलग-थलग महसूस करता है। इस बारे में वह अकसर चुप रहता है लेकिन इसका अर्थ उसका संतोषी मन नहीं है। पूर्वोत्तर की ऐसी चुप्पी और निस्पृहता स्वाभाविक नहीं है, उसके बीज हमें कारण कार्य संबंधों में खोजने होंगे। हृदयों को स्नेह और संवेदना से जोड़ने में भाषाओं के सामिप्य की बड़ी भूमिका होती है। देश की संपर्क भाषा होने के कारण यह उत्तरदायित्व मुख्यतः हिंदी का है। इसीलिए समकालीन भारतीय साहित्य शीघ्र ही एक संपूर्ण अंक पूर्वोत्तर भाषाओं पर निकालने जा रहा है।
पूर्वोत्तर आदिवासी और लोक बहुल जनपदों से भी समृद्ध है- उसी तरह अनेक आदिवासी और लोक-भाषा-साहित्य से भी; परंतु उसका अधिकांश साहित्य वाचिक है, उसकी रक्षा नहीं की गई तो देश एक बड़ी संपदा खो बैठेगा। इसे संचित और सुरक्षित करना एक कठिन काम है। परंतु यह नागरी लिपि और हिंदी भाषा के माध्यम से सुगमता से संभव है। हमें निर्विवाद रूप से पूर्वोत्तर की ही नहीं, शेष भारत की आदिवासी और लोक-भाषाओं की लिपि नागरी स्वीकार लेनी चाहिए, ताकि संज्ञाओं और साहित्य के देशी स्वभाव, चरित्र आदि को अक्षुण्ण रखा जा सके।
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