हमारा समय जिन चीजों से आक्रांत और प्रेरित है उन्हें यदि विस्तार से देखें तो प्रश्न उठता है कि वे भारतीय साहित्य में सर्जनात्मक और वैचारिक स्तर पर क्या रूप ले रही हैं? उत्तर आधुनिकता और उत्तर संरचनावाद का प्रभाव तो भारतीय साहित्य के रचनात्मक पक्ष पर कम ही दिखाई दिया, परंतु भूमंडलीकरण-बाजारवाद और आतंकवाद को भारतीय साहित्य ने बहुत गंभीरता से लिया है और भीतर उतरकर उनकी नसों को जाँचने की कोशिश की है। साहित्य के लिए ये महज भौगोलिक, आर्थिक या आतंक और भय के प्रश्न नहीं रहे, समय को अलग ढंग से परिभाषित करने की बिंबावलियाँ रही हैं। नतीजतन साहित्य ने इनके सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मानवीय और उन पक्षों को देखने की कोशिश भी की है जो ऊपर से कम ही दीख पड़ते हैं।
स्थूल ढंग से यदि हम अपने युग को वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) का युग कहें तो संभवतः समय की सबसे सटीक अभिव्यक्ति होगी। क्योंकि हम जिन बहुमुखी हानि-लाभों से गुजर रहे हैं, वे प्रायः भूमंडलीकरण की फलश्रुति हैं।
महँगाई हो, आर्थिक मंदी हो, देशों के राजनयिक, सांस्कृतिक, आर्थिक संबंध हों, चिकित्सा और जैव प्रौद्योगिकी के अन्वेषण हों या विज्ञान, द्रुत विज्ञान (इलेक्ट्रॉनिकी) और सूचना-संचार के विश्व-सेतु हों; खेल या व्यापार हों या विश्व-मानव के सामाजिक, सांस्कृतिक चरित्र हों; लोगों के आपसी संबंध हों या प्रकृति से मनुष्य के संबंध- सबके भीतर भूमंडलीकरण की अच्छी या बुरी भूमिका है। 'विश्वतापीकरण' (ग्लोबलवार्मिंग) क्या है? क्या उद्योगों की अंधी दौड़ और व्यापक विलासिता का अभिशाप नहीं है? भूमंडलीकरण के चलते मनुष्य अपने अतीत और भविष्य दोनों से कट गया है। वह केवल वर्तमान के एकांतिक स्वार्थ में केंद्रित है। उसे न प्रकृति की चिंता है, न पीढ़ियों की, न उस पीछे छूटती जा रही बहुसंख्यक मानवता के सुख-दुःख, भूख-प्यास की। संस्कृतिविहीन संस्कृति का नया नजारा देखते ही बनता है। यह भूमंडलीकरण तेज़ी से विश्व के संपूर्ण कार्य-व्यापारों, मनःस्थितियों, पर्यावरण और सृजनात्मक संसार पर छा रहा है।
यदि 'भूमंडलीकरण' जैसा आकर्षक शब्द पृथ्वी की एकात्मकता; विश्व को सब क्षेत्रों में पास लाने की मुहिम; एक-दूसरे के दुःख-सुख साझा करने की विश्वव्यापी सद्भावना; एक कोने का दर्द, दूसरे कोने में महसूस करने की व्यापक करुणा; युद्धों और द्वेषों को खत्म करने का उद्यम; ज्ञान-विज्ञान के संचार की व्यापक पहल आदि आदि होता, तब जटिलता का कोई प्रश्न ही नहीं था तब शायद यह संसार का सर्वश्रेष्ठ शब्द होता। परंतु इसका आशय है- चंद पूँजीपति देशों का गरीब देशों पर आर्थिक प्रभुत्व, यानि राजनीतिक और मानसिक साम्राज्यवाद की जगह आर्थिक साम्राज्यवाद स्थापित करने की प्रायोजना, जिसमें निस्संदेह उक्त दोनों का भी समावेश है।
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