आलोक कुमार गुप्त (जन्म: नवंबर 17, 1956) मुक्तिबोध के साहित्य पर अपने शोध कार्य (1983) द्वारा चर्चित रहे आलोक गुप्त आधुनिक हिंदी साहित्य पर निरंतर समीक्षात्मक लेखन करते रहे हैं। 50 वर्षों से गुजरात कर्मभूमि होने के कारण गुजराती साहित्य एवं संस्कृति का गंभीर अध्ययन किया। उनके गुजराती से हिंदी और हिंदी से गुजराती में अब तक 14 अनुवाद ग्रंथ, 5 समीक्षा ग्रंथ और 13 संपादित ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान 2006, समग्र कार्य पर हिंदी साहित्य अकादमी, गुजरात से गौरव पुरस्कार 2018 एवं गुजराती के कालजयी उपन्यास सरस्वतीचंद्र के अनुवाद पर साहित्य अकादमी, दिल्ली के अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित हैं। इन्होंने यू.जी.सी. की लघु एवं दीर्घ शोध परियोजना पर कार्य संपन्न किया है। गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद एवं गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में 40 वर्षों तक अध्यापन करते हुए वरिष्ठ प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्ति के बाद यह विनिबंध संस्थान की दो वर्षीय (2021-2023) अध्येतावृत्ति के अंतर्गत प्रस्तुत किया है।
19वीं सदी का परिदृश्य भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में परिवर्तनकामी रहा है। राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति-परिस्थितियों ने प्रबोधन के नए सूलों की ओर प्रबुद्ध वर्ग को आकर्षित किया। आंतरिक व्यवस्था में परिवर्तन होने लगे। समाज में नए-पुराने के द्वंद्व के साथ सामाजिक कुरीतियों एवं धार्मिक पाखंड के प्रति सजगता से विवेक दृष्टि विकसित हो रही थी, इसमें ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज एवं आर्यसमाज ने संश्लिष्ट रूप से सहयोग किया। गुजराती एवं हिंदी के तत्कालीन साहित्यकारों की रचनाएं इस परिवेश की देन हैं। इस विनिबंध की प्रमुख स्थापना है कि ये साहित्यकार धर्म में आस्था रखते थे, अधिकतर किसी न किसी धर्म- संप्रदाय से संलग्न थे। फिर भी, अपने लेखन में तत्कालीन समाज में प्राप्त धार्मिक पाखंड एवं उसके आवरण में पैंठी सामाजिक कुरीतियों पर तीव्र प्रतिक्रिया दे रहे थे। जिन रचनाकारों ने पत्न-पत्रिकाओं में अपने लेख एवं निबंधों में मुखरता से नहीं लिखा, उनकी अन्य साहित्यिक रचनाओं में इन पर तीखी टिप्पणियां मिलती हैं।
19वीं सदी में अंग्रेजों के शासन की विडंबनाओं के बीच गुजराती और हिंदी साहित्यकारों ने अपनी सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय भावनाओं को राजभक्ति के आवरण में भी अभिव्यक्त किया। विनिबंध दोनों भाषाओं की साहित्यकारों द्वारा अपनी परंपराओं एवं परिस्थितियों से ग्रहण और त्याग को भी परिलक्षित करता है।
19 वीं सदी के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में हुए परिवर्तनों ने भारतीय प्रबुद्ध वर्ग को तो प्रभावित किया ही, भारतीय समाज की आंतरिक व्यवस्था में भी परिवर्तन की सुगबुगाहट जगा दी थी। अंग्रेजी शासन में, भारतीय समाज नए-पुराने के द्वंद्व के बीच, सामाजिक कुरीतियों के बारे में अधिक सचेत हो रहा था। ईसाई मिशनरियों ने भारतीय धर्म दर्शनों पर प्रश्न उठाए, तो परवर्ती प्राच्यविद्याविदों ने ईसाई और हिंदू धर्म के बीच साम्य खोजने का प्रयास किया। अलेक्जेंडर डफ और अल्ब्रेख्त वेबर की परस्पर विरोधी स्थापनाओं में समय का लंबा अंतराल नहीं है। आंतरिक रूप से ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और आर्य समाज ने धर्म क्षेत्र में समाहित पाखंड और विसंगतियों पर तीखी टिप्पणी करके विवेक दृष्टि विकसित करने में सकारात्मक कार्य किया। इस दौर में अधिकतर भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य में कुछ अंतराल से इसकी गहरी अनुगूँज सुनाई देती है। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल और पश्चिमोत्तर प्रांत के साहित्यकार-पत्रकार युगीन चुनौतियों से जूझते हुए रचनारत थे। पत्रकारिता और साहित्य (अधिकतर साहित्यकार पत्रकार रहे) का मिला-जुला रूप अस्तित्व में आया और उसमें अपने समय के प्रश्नों की धमक है। यह साहित्यकार अपने-अपने ढंग से गंभीरता से अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए समाज का दिशा-निर्देश कर रहे थे। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 'कास्ट डिसेबिलिटी रिमूवल एक्ट 1850' लागू होने से जातिगत श्रेष्ठता का अधिकार प्रभावित हुआ। इसने भारतीय समाज के पारंपरिक ढाँचे और भद्र वर्ग के अधिकार को सीमित करके लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए पहल की और धार्मिक परंपराओं के नाम पर चल रही कुप्रथाओं पर अंकुश लगाने का भी प्रयास किया। सुधारवादियों और परंपरावादियों के बीच के संघर्ष की यह पृष्ठभूमि है, जिसमें नई शिक्षा का भी प्रदान है। यह कार्य 19वीं सदी के गुजराती और हिंदी साहित्य से संबंधित है। यहाँ एक स्पष्टता भी आवश्यक है कि यह तुलनात्मक अध्ययन नहीं है, क्योंकि वह एक अलग अनुशासन होता है। गुजरात पिछले पाँच दशक से मेरी कर्मभूमि रहा है। यहाँ के साहित्य और समाज का अध्ययन अनुशीलन करते हुए मैंने गुजराती पढ़ना-लिखना सीखा। गुजराती साहित्यकारों की रचनाओं को मूल गुजराती में अध्ययन करने का अवसर मिला और यह बोध हुआ कि भारतीय साहित्य के अध्येताओं (विशेष रूप से 19वीं सदी के गुजराती साहित्य के बारे में) को सीमित सामग्री उपलब्ध हो पाई होगी। श्री सुधीर चंद्र के ग्रंथ 'दि अप्रेसिव प्रिजेंट' में गुजराती साहित्य से संबंधित कई तथ्यात्मक भूले हैं। श्री के. एन. पणिक्कर के ग्रंथों में तो उत्तर भारत एवं गुजरात के औपनिवेशिक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन का लगभग उल्लेख नहीं है, जबकि 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम का केंद्र उत्तर भारत था और 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रीय चेतना के विकास में इसके प्रदान को भुलाना कार्य की सीमा बन जाती है।
मेरे शोध कार्य में केंद्रीयता इस तथ्य की है कि इस समय के साहित्यकारों ने धार्मिक पाखंड और सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया लेकिन सभी साहित्यकार (विशेष रूप से गुजराती और हिंदी के) धर्म का विरोध नहीं करते बल्कि उसे ही 'उन्नति का मूल' मानते हैं। यह केंद्रीय भाव अंतः सूत्र के रूप में गुजराती एवं हिंदी साहित्य में विद्यमान है। यह तथ्य भी उभर कर आया कि धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति-परिस्थितियों पर मुखर प्रतिक्रिया न देने वाले लेखक अपने साहित्य में इन पर तीखी प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी करते हैं। चाहे वे गुजराती के नर्मदाशंकर और नवलराम हों या हिंदी के भारतेंदु हरिश्चंद्र और बालकृष्ण भट्ट आदि हों। धार्मिक आस्था और पश्चिमी प्रभाव जिसे व्यापक अर्थ में 'आधुनिकता' कहा जा सकता है, के बीच द्वंद्व के बावजूद भारतीय मूल्यों में उनकी जड़ें गहरी थीं।
यह शोध कार्य पाँच अध्यायों में विभाजित किया गया है। अध्याय-एक में 19वीं सदी की ऐतिहासिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है। यहाँ मुख्य तथ्यों और स्थापनाओं को ही रेखांकित किया गया है। इनमें विद्वानों के मतभेदों को शामिल नहीं किया है। इस शोध से इनका सीधा संबंध नहीं है और साहित्य का अध्येता होने के कारण मेरी अपनी भी सीमाएँ हैं। राजनैतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का अध्ययन अपने में स्वतंत्र और गंभीर विषय है। इस अध्याय में सामग्री संचयन में मैंने द्वितीय स्रोतों (सोर्स) का ही उपयोग किया है। इस पृष्ठभूमि का अनुशीलन करते हुए भारतीयता के स्वरूप को रेखांकित किया गया है। द्वितीय अध्याय 'धर्म और धार्मिकता' है। चूंकि गुजराती साहित्य का लेखन पहले हुआ था, नर्मद के 'मंडली मलवाथी थता लाभ' निबन्ध 1851 ईस्वी (सभी स्थानों पर ईस्वी सन का प्रयोग किया गया है) में प्रकाशित हुआ था और गुजराती साहित्य में यह ऐतिहासिक महत्त्व रखता है-इसलिए इस शोध कार्य में प्रथम गुजराती साहित्य और फिर हिंदी साहित्य का अध्ययन, अनुशीलन है। दोनों भाषाओं के साहित्यकारों के ग्रहण और प्रतिक्रिया में अंतर है जिसे प्रस्तुतीकरण और विश्लेषण से जाना जा सकता है, यहाँ उसी रूप में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। उदाहरण के लिए पूर्व नर्मद (उनके जीवन के उत्तरार्द्ध में विचारों में परिवर्तन आया था) ने सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र के सुधार के बारे में विस्तार से लिखा है। वे धार्मिक पाखंडों पर तीखा आक्रमण करते हैं। लेकिन उत्तर नर्मद सुधारकों की सीमाओं को उद्घाटित करते हैं और प्रकट रूप में सनातन धर्म की ओर उन्मुख होते हैं। अनुशीलन से यह तथ्य भी सामने आया कि धार्मिक प्रश्नों के विश्लेषण में यह परिवर्तन विशेष परिलक्षित नहीं होता। इसी तरह हिंदी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट आदि साहित्यकार धार्मिक संस्थाओं से संबद्ध रहते हुए धार्मिक आचार-विचारों, पवित्र मास, स्नान एवं व्रत के महात्म्य पर लिखते हैं, साथ ही धार्मिक क्षेत्र के पाखंडों पर प्रारंभ से ही कटु प्रहार करते हैं। इस संदर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा, वसुधा डालमिया और वीरभारत तलवार की स्थापनाएँ कहीं-कहीं एक दूसरे के विपरीत हैं, मैं इनका किंचित उपयोग ही कर पाया हूँ। इन अध्ययनों के समय तक हिंदी के इन प्रतिनिधि साहित्यकारों का समग्र साहित्य प्रकाशित नहीं हुआ था; अभी भी पूर्ण प्रकाशित नहीं है) इन अध्येताओं ने अपने ग्रंथों में जिन पत्र-पत्रिकाओं की फाइलों की सामग्री को आधार बनाया है उनमें से कई साहित्यकारों की ग्रंथावली, रचनावली के प्रकाशन के बावजूद सब कुछ प्रकाशित नहीं हो पाया। मैं बनारस और इलाहाबाद की संस्थाओं, ग्रंथालयों में उस सामग्री तक पहुँचने में असमर्थ रहा। इसलिए आवश्यक था, वहाँ इन अध्येताओं के उद्धरणों की सहायता ली है।
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