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रुहेलखण्ड 1857 में: Rohilkhand in 1857

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Specifications
HBH037
Author: Zeba Lateef
Publisher: Rampur Raza Library, Uttar Pradesh
Language: Hindi
Edition: 2007
Pages: 153
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
422 gm
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Book Description
प्रस्तावना

भारत में आज़ादी की प्रथम जंग जिसे कुछ इतिहासकार भारत में 1857 के विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसे गुज़रे हुए 150 वर्ष हो चुके हैं। इसीलिए भारत सरकार एवं प्रान्तीय सरकारों ने इस आज़ादी की प्रथम जंग की 150वीं वर्षगाँठ को पूरे वर्ष 2007 तक मनाने का ऐलान किया है।

रामपुर रज़ा लाइब्रेरी भी इस वर्ष को आज़ादी की पहली जंग की 150वीं वर्षगाँठ के तौर पर मना रही है। इस संदर्भ में कई कार्यक्रम आयोजित हुए हैं तथा आगे भी आयोजित किए जाएँगे।

ब्रिटिश राज की ना-इन्साफियों और सियासी मज़ालिम से भरपूर भारत की तारीखे आज़ादी इससे बहुत कदीम और जान व माल की कुरबानियों से रंगीन है जितनी आज सियासी बदनियती के सबब से बताई जाती है, या मदर्सों में पढ़ाई जा रही है। तारीख के साथ यह खिलवाड़ हर ज़माने में कुछ ज़्यादा ही हुआ है। फिरंगी ताजिरों ने इस देश को दोनों हाथों से लूटा हमारे लघु उद्योगों को खत्म किया। माली हालत को इतना कमज़ोर कर दिया कि आज तक इस देश के करोड़ों बाशिंदे ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन गुज़ार रहे हैं और एक दरमियानी तब्का वजूद में आ गया है जिस के कंधों पर हर तरह के टैक्सों का जुआ रखा हुआ है। लेकिन तारीख़ की सितम ज़रीफ़ी यह है कि जिस फिरंगी ने भारत की दौलत को समेट कर अपने देश को सजाया-सँवारा, हमारी तहज़ीब और सकाफ़त की हज़ारों साल पुरानी तारीख को नेस्तो-नाबूद कर दिया, और हमारी ज़िन्दगी के हर पहलू में अपने कल्चर और तोर तरीकों से भर दिया, जिससे आज तक हम दूर नहीं हो सके। इस देश के बाशिन्दे आज भी इसके लिए तालीम और हमदर्दी के जज़्बात रखते हैं और हिन्दुस्तान के लाखों स्पूतों ने अपनी मादरे-वतन की इज़्ज़त और हुर्मत और आज़ादी को बचाने के लिए अपनी जान, माल, इज़्ज़त, आबरू सब कुछ कुर्बान कर दिया। उनका नाम भी कोई नहीं जानता और उनकी कुर्बानियों की तरफ किसी का ध्यान भी नहीं जाता।

इतिहास गवाह है कि रुहेलखण्ड ने भी इस जंग में सराहनीय योगदान दिया था परन्तु उन शहीदों के योगदान को नई पीढ़ी ने भुला दिया है। यह पुस्तक उन्हीं वाक्‌यात का आईना है जो नई पीढ़ी को अपने पुरखों के बलिदान और योगदान को याद दिलाने की एक छोटी सी कोशिश है। रुहेलखण्ड में 1857 के सात जिलों में बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, पीलीभीत, बदायूँ तथा शाजहाँपुर शामिल थे। इस किताब में इन सभी जिलों के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य एवं सूचनाएँ तथा इन जिलों के लोगों के कारनामों को लेखिका ने क्रमबद्ध तरीके से पुस्तक में प्रस्तुत किया है।

रुहेलखण्ड का इतिहास जो 1857 के समय में इतिहास की उर्दू पुस्तकों में भरा पड़ा है उन्हें किताब में हिन्दी में भी रूपानत्रित करके प्रस्तुत किया गया है। रुहेलखण्ड की नई पीढ़ी को उनके बुजुर्गों के कारनामों से परिचित कराने के लिए इस पुस्तक का राष्ट्र भाषा में लिखा जाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि इस पूरे क्षेत्र के अधिकतर लोग हिन्दी भाषा से भलीभाँति परिचित है।

प्राक्कथन

रुहेलखण्ड का क्षेत्र 26 डिग्री 30 डिग्री उत्तरी अक्षांश, 77 डिग्री-80 पूर्वी देशान्त में स्थित है। यह क्षेत्र हिमालय पर्वत की तराई से लेकर चम्बल नदी तक फैला हुआ है। रुहेलखण्ड दो शब्दों से मिलकर बना है, 'रुहेल' + 'खण्ड'। 'रुहेल' का वास्तविक अर्थ 'रुहेला' था, अर्थात रुहेलखण्ड। जब इन दोनों शब्दों को मिलाकर एक शब्द बना तो यह रुहेलखण्ड हो गया। 'रुहेला' वह लोग कहलाए जो अफ़ग़ानिस्तान के 'रोह' प्रान्त के रहने वाले थे और जब वह त्तर प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में आकर बस गये और उन्होंने यहां राजनैतिक शक्ति भी हासिल कर ली तो यह क्षेत्र रुहेलखण्ड कहलाया। 'रुहेलों को राजनैतिक शक्ति अट्ठारवीं शताब्दी में दिल्ली के मुग़ल सम्राट 'मुहम्मद शाह' (1719-1748) के समय में प्राप्त हुई और उस समय यह प्रान्त रुहेलखण्ड कहलाने लगा था।

अट्ठारवीं शताब्दी में यह प्रान्त जिसका नाम रुहेलखण्ड पड़ा वास्तव में कठेर कहलाता था। जहां कठेरिया राजपूत बसे हुए थे।

"कठेर की सीमा वही थी जो रुहेलखण्ड की वर्तमान सीमा है" अर्थात वह क्षेत्र जो अधिक उपजाऊ था, गंगा नदी के किनारे बसा हुआ था और जो क्षेत्र कम उपजाऊ था वह दोआब में था। प्राचीन भारतीय इतिहास में 'कठेर' पांचाल देश का एक हिस्सा था।

'अहिच्छत्र' जो उत्तर पांचाल देश की राजधानी थी, दसवीं शताब्दी तक प्रसिद्ध रही। जहां पुराने किले के अवशेष मौजूद हैं। ज़िला बरेली की तहसील आंवला के ग्राम रामनगर में थी। इस प्रकार रुहेलखण्ड का इतिहास पांचाल के प्राचीन इतिहास से संबद्ध है।

उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश हुकूमत के समय रुहेलखण्ड में सात ज़िले सम्मिलित थे- बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, पीलीभीत, बदायूँ तथा शाहजहाँपुर। इन जिलों में बड़ी संख्या में रुहेला पठान बसे हुए थे। मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने इनकी बढ़ती हुई शक्ति को तोड़नें के लिए राजा हरनंदन खत्री को भेजा था। परन्तु जब रुहेलों को हरनंदन खत्री पर ग्राम असालतपुर जारी, परगना बिलारी, जिला मुरादाबाद में फरवरी 1742 को विजय प्राप्त हुई तो संभल, अमरोहा, बरेली, मुरादाबाद, शाहजहाँपुर और शाहबाद से ज़िला हरदोई तक उनके अधिकार में आ गया। रुहेलों ने इस विजय के उपरान्त 'कठेर' का नाम रुहेलखण्ड रख दिया।

1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष में यह सातों ज़िले प्रभावित हुए थे। रामपुर के नवाब यूसुफ अली ख़ाँ (1855-65) ने अंग्रेज़ों की मदद की थी। शेष ज़िलों में अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह हुआ था जो शहरों के अलावा कस्बों और गांवों में फैल गया था। आगे 1857 के संदर्भमें प्रत्येक ज़िले की भौगोलिक दशा तथा राजनैतिक इतिहास का कालक्रमानुसार वर्णन किया गया है।

1857 का विद्रोह ब्रिटिश नीतियों (क-आर्थिक शोषण, ख-साम्राज्य विस्तार) के विरुद्ध जनता का बढ़ता हुआ, असंतोष था जो इस जनविद्रोह के जरिए अंग्रेज़ी शासन को समाप्त कर देना चाहती थी। 1857 के विद्रोह के कारण राजनैतिक आर्थिक समाजिक, सैनिक, न्यायिक तथा शैक्षिक आदि सभी जिलों में लगभग समान थे। रुहेलखण्ड में भी कोई ऐसे कारण नहीं थे। अतः इन कारणों को बताना ज़रूरी नहीं समझा।

1857 में रुहेलखण्ड कमिश्नरी (मंडल) में सात ज़िले शामिल थे। समस्त मंडल का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी कमिश्नर था जिसका नाम आर अलैकज़ैन्डर था और उसका कार्यालय बरेली जनपद में था। हर एक ज़िले में ज़िला मजिस्ट्रेट थे। जिला मजिस्ट्रेट के अधीन ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट, डिप्टी कलेक्टर तहसीलदार और उनके अधीन कर्मचारी होते थे। उनके अलावा ज़िला जज और मुफ़्ती होते थे। अस्पताल के सर्जन, असिस्टेन्ट सर्जन तथा जेल सुपरिटेन्डेन्ट होते थे। बरेली जनपद में सैनिक छावनी थी जहाँ सेना का सर्वोच्च अधिकारी रहता था इसके अधीन दर्जनों सैनिक अधिकारी थे। प्रत्येक ज़िले में ख़ज़ाने की सुरक्षा के लिए सेना के सिपाही तैनात रहते थे। इस तरह रुहेलखण्ड मण्डल में अंग्रेज़ों की शाक्तिशाली प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित थी जो कठोर अनुशासन तथा दूरसंचार व्यवस्था की वजह से बेहद कारगर थी। अंग्रेज़ मालगुजारी की वसूली में सख्ती बरतते थे। चूँकि उनका सम्बन्ध ईस्ट इंडिया कम्पनी से था, जो एक व्यापारिक कम्पनी थी। अगर मालगुज़ारी वसूल नहीं होती तो वह रुहेलखण्ड में ठेकेदारों के द्वारा मालगुज़ारी वसूल करते थे। मालगुज़ारी वसूल न होने की स्थिति में भूमि कुर्क करना, ज़मीन की नीलामी एक साधारण बात थी। इन हालातों में काश्तकार तबाह हो गया और अशान्ति फैल गयी।

1857 की घटनाओं को सभी जिलों में अलग-अलग प्रस्तुत किया गया है ताकि उन जिलों में स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय की घटनाओं और इतिहास को समझने में कठिनाई न हो।

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