ओ० एस० डी० रामपुर रज़ा लाइब्रेरी रामपुर का पद ग्रहण करने के बाद मेरी दिली इच्छा थी और आज भी है कि लाइब्रेरी के तारीखी और अदबी मवाद को किताबों की शक्ल में सबके सामने लाऊँ। विशेषकर रोहेलों के इतिहास, साहित्य, कला और वास्तुकला में मेरी गहरी दिलचस्पी थी। मेरी नज़र में रोहेला इतिहास का सम्बन्ध केवल रोहेलों के अधिकृत क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है बल्कि उस युग के भारतीय इतिहास से भी इसका घनिष्ट सम्बन्ध रहा है।
औरंगज़ेब के देहान्त (1707) के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन बड़ी तेज़ी से आरम्भ हो गया था। इसी ज़माने में अफ़ग़ानिस्तान के इलाक्ये रोह से सरदार दाऊद खाँ रोहेला अपने चंद साथियों के साथ उत्तरी भारत के कठेर के इलाके में आया था। उस समय कठेर के छोटे छोटे ज़मीनदारों ने खुद को राजा घोषित करके और बल प्रयोग से दूसरे ज़मीनदार के इलाकों पर अधिकार करना आरम्भ कर दिया था। कठेर के मुग़ल सूबेदार शक्तिहीन हो चुके थे। राजा आपस में लड़ रहे थे। इस अराजकता ने सरदार दाऊद खाँ रोहेला को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर दिया और उसने बदायो के कुछ इलाके पर अधिकार करके बनगढ़ी नामक मिट्टी का किला बना लिया।
इस इलाके के कठेरिया राजपूत, बनजारा, अहीर राजाओं, मुरादाबाद, बदायों और बरेली के कमज़ोर मुग़ल सूबेदारों को भी दाऊद खाँ की फौज की ज़रूरत पढ़ने लगी। दाऊद खाँ ने फौजी मदद करके दौलत और शोहरत पाई। परन्तु राजा कुमाऊँ ने उसे अलमोड़ा बुलाकर उसका कत्ल कर दिया।
दाऊद खाँ के लड़के नवाब अली मोहम्मद खाँ ने न केवल कठेर पर अधिकार कर लिया बल्कि गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं को पराजित करके उन्हें अपना आज्ञाकारी और बाजगुजार बना लिया। उसने तराई भावर के विशाल इलाके और गंगा के बालाई दोआब के इलाकों पर अधिकार करके रोहेला अधिकृत क्षेत्रों की सीमाओं को बहुत बढ़ा लिया। इस तरह कठेर की रोहेला शक्ति शाहजहाँपुर, कायमगंज व फर्रुखाबाद और मऊरशीदाबाद के बाद एक नई शक्ति शाली कालोनी बनकर हिन्दुस्तान के सियासी नक्शे पर उभरी।
यह नई उभरती हुई रोहेला ताक़त अवध के सूबेदारों और मुग़ल जागीरदारों के लिये खतरा बन गई। इसी कौम के नवाब नजीब-उद-दौला ने लगभग दस ग्यारह साल तक दिल्ली साम्राज्य का रीजेंट बनकर मुग़ल साम्राज्य को जाटों, मराठों और सिक्खों से सुरक्षित रखकर यह सिद्ध कर दिया कि रोहेला अच्छे सैनिक ही नहीं बल्कि प्रशासनिक योग्यता भी रखते हैं और अगर हालात अनुकूल रहे तो सारे हिन्दुस्तान पर अधिकार भी कर सकते हैं। परन्तु नवाब अली मोहम्मद खाँ की बेवक्त मौत (1748) ने रोहेला साम्राज्य के विस्तार को सीमित कर दिया।
लेकिन नवाब नजीब-उद-दौला बड़ी वीरता और साहस से मुग़ल साम्राज्य के घोर शत्रुओं, मराठों और जाटों से अन्तिम क्षणों तक युद्ध करता रहा।
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