आत्मकथा लिखना निहायत कठिन काम है। मूलतः आत्माभिव्यक्ति की छटपटाहट ही आत्मकथा लिखा लेती होगी। ईसाई परंपरा और किंचित् भिन्त्र ढंग से मार्क्सवादी शासकीय परंपरा में 'कन्फेशन' (स्वीकारोक्ति) सामाजिक-धार्मिक बाध्यता के तहत खास तरह की आत्मकथाएँ पैदा करती रही है। ये 'आत्मकथाएँ' सार्वजनिक रूप से यदा-कदा ही सामने आती है। क़ानून के दबाव में भी 'आत्मकथा' (सत्यकथा।) निकलती रहती है। विश्लेषण-विवेचन के वैज्ञानिक युग में व्यक्ति, समाज, मनोविज्ञान आदि की अपेक्षाकृत विश्वसनीय मूल-सामग्री के रूप में आत्मकथाओं का उपयोग हुआ है। विभित्र प्रकार के संघर्षों और आंदोलनों में आत्मकथाओं ने एक तरह से घोषणापत्र का काम भी अंजाम दिया है; गांधीजी के 'सत्य के प्रयोग' इस की सर्वोत्तम भारतीय मिसाल है। दलितों की आत्मकथाएँ भी बहुत कुछ वैसा ही प्रभाव छोड़ती हैं। इतिहास-लेखन में सभी प्रकार की आत्मकथाएँ आधारभूत स्रोत बन जाती है।
आत्माभिव्यक्ति को छटपटाहट और समाज के विभित्र अंकुश दो धुर्वात हैं जिन के बीच आत्मकथा की कई समस्याएँ हैं। मौलिक समस्या सत्य और यथार्थ की है जो बहुवर्णी, बहुरंगी, बहुस्तरीय, बहुमुखी होते हैं। वस्तु-सत्य को जानना, ठीक-ठीक संदर्भ में रखना, परिदृश्य को समुचित विस्तार में देख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं होता। कठिनतर काम अपने 'निजी' सत्य और यथार्थ को पकड़ना है। आत्मस्तुति, आत्मरति, आत्म-औचित्य की स्थापना का मोह एक ओर, परनिन्दा, प्रतिशोध तथा जिघांसा जैसी स्वाभाविक चित्तवृत्तियों का दूसरा छोर: इन दोनों के बीच अकसर आत्मकथाएँ झुलस जाती हैं।
जो कहा जाना चाहिए लेकिन नहीं कहा गया उस में लोकभय, लोकलाज और औदार्य एवं सहज करुणाभाव जैसे तत्व कितने बाधक होते हैं, इन का लेखा-जोखा भी आसान नहीं है। स्त्रियों ने ज़्यादातर चुप्पी साध रखी, इस के पीछे न जाने ऐसे कितने कारण रहे होंगे। इस प्रसंग में ध्यान आता है कि भारत के इतिहास का एक सब से रोमांचक दौर भक्तिकाल का था, जिस में पहली बार, प्रायः पूरे देश में, प्रायः सभी भाषाओं में स्त्री-चेतना का प्रबल विस्फोट हुआ। माध्यम भले ही पुरुष-देवों की भक्ति का रहा हो, लेकिन कठोरतम बंदिशों को तोड़ते हुए, अपना सब कुछ, दाँव पर लगा कर आत्माभिव्यक्ति और स्वतंत्र व्यक्तित्व रचने का जो उफान महान कवयित्रियों के रूप में आया, वह सैकड़ों वर्ष बाद बीसवीं सदी के उत्तरार्थ में ही दुबारा प्रकट हुआ है। इस नए दौर में, जिस की शुरूआत उन्नीसवीं सदी में ही हो चुकी थी, संदर्श, संदर्भ, ध्येय, उपकरण इत्यादि सब बदले हुए हैं। लेकिन आज भारत की कोई भी ऐसी भाषा नहीं है, जिस का साहित्यिक दृश्यालेख शीर्षस्थानीय महिला रचनाकारों को शुमार किए बगैर पूरा हो सके।
भक्तिकाल की एक और खूबी रही जिस का उल्लेख साहित्य-इतिहास में हमेशा होता है, लेकिन जिस की अर्थव्याप्ति या सांकेतिकता का विश्लेषण बहुत नहीं हो सका। नारी-चेतना के समानांतर ही उस दौर में दलित-चेतना का प्रखरतम रूप सामने आया था। आज जो संतकवि जन-जन के हृदय-हार है, उन्हें अपनी सामाजिक जातिगत स्थितियों के कारण किस तरह का साहस जुटाना पड़ा होगा, इस की केवल कल्पना ही को जा सकती है। आत्मकथाओं के रूप में अगर हमें उन की तफसील और ब्योरे मालूम होते तो संभव है सामाजिक परिदृश्य इतना लुंठित-कुंठित न होता!
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