प्राक्कथन
संगीतजगत् में एक नया ग्रन्थ अवतरित होने जा रहा है जिसका नाम हैं सूरसंगीत ।
वैष्णव सम्प्रदाय के महान् भक्तकवि सूरदास जी के चुने हुए पदों को स्वर और ताल में निबद्ध करके भक्तिकवि के निगूढ़ भावों की अभिव्यंजना करने का यह एक श्लाध्य सुप्रयास है ।
प्रचलित संगीत पर वैष्णवसम्प्रदाय का महान् ऋण है । वैष्णवमन्दिरों में भगवान् के जो लीलागान गाए जाते हैं एवं जो आठों पहर और छहों ऋतुओ के समयानुकूल लीलागान की परिपाटी दीर्घकाल से चली आ रही है इस परिपाटी ने संगीतजगत को बडा ही अमूल्य दान दिया है । आज के प्रचलित ध्रुवपदों, होरियों धमारों तथा ख्यालों के पदों के सूक्ष्म एवं अभ्यासपूर्ण निरीक्षण से यह कथन भलीभाँति परिपुष्ट हो जाएगा । इन पदों में सूरदास जी, कुम्भनदास जी, लक्ष्मनदास जी परमानन्ददास जी आदि भक्तकवियों के मधुरतम ललित भावों से भरे गीतों का कितना विपुल स्थान है, वह स्वर और शब्द राग और कविताइन दोनों की ओर दृष्टि रखनेवालों को सहज ही में दिखाई देगा ।
गुणी तानसेन जी, जो भारत के महान् गायनाचार्य थे जिनके गान की ख्याति और तान की प्रसिद्धि आज भी सर्वमान्य है, उनके पदों से एवं नायक बैजू बावरा, जो भारत के उस समय के सर्वश्रेष्ठ संगीतधन थे, उनके और अन्य अनेक गुणीजनों के पदों से आज का संगीतविश्व मुखरित है । तानसेन जी के महान् गुरु स्वामी श्री हरिदास जी, जिनके गीतधन से आज का संगीतसाम्राज्य समृद्ध है तथा जिस लोकोत्तर सम्पत्ति से संगीतसृष्टि आज भी गौरवान्वित है, ऐसे संगीतमहर्षि भी संगीतजगत के लिए वैष्णवसम्प्रदाय की ही देन हैं ।
भक्तिसम्प्रदाय के सभी भक्त कवि तो थे ही, किन्तु श्रेष्ठ गायक भी थे । वे सभी गायककवि थे । सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, रैदास मीराबाई गुरु नानक नरसी मेहता, दयाराम, तुकाराम तथा त्यागराज आदि सभी महान् भक्त थे, श्रेष्ठ कवि थे और परम गायक थे । उन्हें निजानुभूति से यह दर्शन प्राप्त हुआ था कि भवसागर पार करने के लिए तूँबे का सहारा अनिवार्य है । प्रकाशसे परम प्रकाश दिखाई देता है । रूप से ही परम रूप नजर आता है । तद्वत नादब्रह्म से ही परब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है । वे जानते थे कि नान्य पन्था विद्यतेऽयनाथ इसके सिवा कोई चारा नहीं है । इसी से विश्व के सभी भक्त तम्बूरे की ही नाव में बैठते हैं । उसी तम्बूरे की तान में तल्लीन होकर वे जो कुछ करते थे, उनके मुख से भाव की जो वैखरी निर्झरित होती थी, वह स्वयं कविता बन जाती थी । और वही गीत संगीत बन जाता था । जो शब्दब्रह्म उनके मुख से कविता के रूप में इस अवनि पर अवतरित हुआ वह आज भी अखण्ड रूप से जनता के हृदय के तमस को हटाकर उसे आलोकित करता है ।
कभीकभी कोई कवि मुझसे पूछ बैठता है कि इन भक्तकवियों की कविताओं मे ऐसी कौन सी बात है, जो इन्हें गाते हुए और सुनते हुए, गायक और जनता अघाते ही नहीं है और हमारी कविता में क्या कमी है, जो वह जनता के कानों तक पहुँचती ही नहीं और यदि किसी ने पहुँचा भी दी तो जनता के कण्ठ से वह कल्लोलित नहीं होती? मेरे सामने इसका एकमात्र उत्तर यही है कि भक्त कविता करने बैठते नहीं । वे कवि बनकर कविता नहीं करते । वे संगीत के गुंजन में तन्मय होकर अपने इष्टदेव की आराधना करते हैं और उस समय उनके मुख से सहज और स्वयमेव शब्द टपक पड़ते हैं, वही गीत के रूप में राग बनकर और कविता के रूप में संगीत बनकर गूँज उठते हैं । उनकी कविता कविता नहीं वह हत्तंत्री की झंकार है । उनकी आत्मा की अनुभूति भावों की भाषा में आलापित होकर गा उठती है । जब वर्तमान कवि भी इस परम सत्य का दर्शन करेंगे तब उन्हें गायकों से और जनता से कोई शिकायत न रहेगी । तब उनकी कविता में प्राण होगा जीवन होगा, प्रसाद होगा । उसका प्रभाव अचिंत्य होगा शाश्वत होगा और सत्यं शिवं सुदरम् होगा । यह विश्व भगवान् की रससृष्टि का प्रतिबिम्ब है और गायककवि का गीत इस भाव की व्यंजना का प्रतिघोष है । रस में डूबते ही वाणी मुखरित हो उठती है । स्वर के आन्दोलन जाग जाते हैं और इस प्रकार स्वरशब्द एक साथ झंकृत हो उठते हैं । वही संगीत है कविता भी वही है ।
हमारे सूर कवि की कविता किसी ऐसी ही दिव्य घड़ी में गूँज उठी है, जिनके शब्द स्वयं स्वर बन गए हैं और जिनकी कविता स्वयं संगीत बन गई है । सूरदास जी की ऐसी ही दिव्य वाणी को ग्रन्थित करने का इस ग्रन्थ सूरसंगीत में यथासाधन और यथाशक्ति प्रशस्त प्रयास किया गया है ।
क, च, ट, त, प आदि व्यंजन तब तक पंगु हैं जब तक वे अकारादि स्वरों से संयोजित न हों । स्वर की सहायता के बिना शब्द भी निःसहाय हैं । एक ही शब्द के अनेक अर्थ स्वर के सहयोग से ही सम्भावित हैं । जीवन के व्यवहार में जिन्हें आँखें हैं, वे नित्यप्रति, प्रतिपल देखते और जानते हैं कि सारा विश्व नाद के ही अधीन है । शास्त्रकारों ने इसी से कहा है कि
नादेन व्यंज्यते वर्ण पदं वर्णात् पदात् वचः ।
वचसो व्यवहारोऽयं नादाधीनमिदम् जगत् ।।
इसी दृष्टि से सूरदास जी की शब्ददेह में स्वरताल के द्वारा आत्मा का संचार करने के उद्देश्य से इस ग्रन्थ का निर्माण किया गया है । वह जैसा है, बुधजनों के सम्मुख है । विज्ञजन अपनाएँ या न अपनाएँ, सफल कहें या निकल घोषित करे, किन्तु मेरी राय मे तो यह प्रयत्न नितान्त सुश्लाघ्य है, श्रेयस्कर है, सराहनीय है एवं उत्तेजनीय है । मेरी दृढीभूत मान्यता है कि अकारणात् मदकरणं श्रेय ।
वर्तमान समय के प्रचलित शास्त्रीय संगीत में जो गीत गाए जाते हैं, उनके शब्द, अर्थ, भाव और रस, रागों और रागिनियों के रसभाव के साथ संवादित होते हुए नहीं दीखते । राग और रागिनियों के रसभाव को देखकर उसकी यथार्थ अनुभूति पाकर, तदनुसार और तदनुकूल गीतपद्य का चुनाव होना चाहिए । किन्तु इस बात का अभाव प्रतिपल खटकता है । आज के शास्त्रीय संगीत में वांछित रस का निर्माण नहीं होता । उसका मुख्यत और मूलत यही कारण है कि रसानुकूल शब्द नहीं होते और अर्थानुकूल स्वर नहीं होते । या तो अर्थानुकूल राग का चुनाव हो, या राग के रसानुकूल काव्य का चुनाव हो । शब्द और स्वर के संयोग से ही दिव्य संगीत उद्भूत होता है । विश्व को जब स्वरशब्दमय संगीत की संप्राप्ति होगी, तभी ज्ञानी, अज्ञानी सभी समाधि का परमानन्द पा सकेंगे ।
। शब्द स्थूल है । उसे सामान्य जन और विज्ञजन, दोनो समझ सकते हैं ।
स्वर सूक्ष्म है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है उसके अर्थ निगूढ़तम हैं और इसीलिएउसकी भावव्यंजना सामान्यजन की ग्रहणशक्ति से परे है । जैसे प्रणव का दिव्य शान ज्ञानी ही सुन सकते हैं, तद्वत् स्वर के दिव्यालोक का दर्शन वही कर सकते हैं, जो शब्दातीत हैं ।
इसीलिए सूर जैसे महान् गायककवि के काव्य की संगीत मे अवतारणा करना परमावश्यक एवं परम कर्त्तव्य है । सामान्य और विज्ञ, सभी की आत्मा उस दिव्य संगीत में अवगाहन कर सकेगी और विशुद्ध हो सकेगी ।
सभी को शिकायत है कि आजकल सिनेमासंगीत ने अनर्थ कर छोडा है । साथसाथ यह भी सुनते हैं कि सिनेमासंगीत में शब्द और स्वर के संयोग के कारण एक विशेष आकर्षण रहता है और इसी आकर्षण से आकर्षित होकर जनता उस संगीत के प्रति उन्मुख होकर उमड पडती है ।
किन्तु कुछ लोग इस संगीत का घोर विरोध भी करते हैं और कहते हैं कि इस संगीत के द्वारा हमारे समाज का स्तर नीचे गिरता जा रहा है, हमारीमनोवृत्तियां भ्रष्ट हो रही हैं और हमारे समाज की आत्मा पतन पा रही है । उनका यह कथन नितान्त सत्य है, उनकी घोर पतन की आशंका भी यथार्थ हे । किन्तु इसका कारण खोजना चाहिए और कारण खोजकर उसे निर्मूल करना चाहिए । यह अनुभवसिद्ध है कि उच्च भावनाओं से निबद्ध शब्द जब स्वरों का संयोग पाते हैं, तो गानेवालों या सुननेवालों का सदैव उत्थान करते हैं और लइ निकृष्ट भावभरे शब्द जब स्वरों का संयोग पाते हैं, तो गानेवालों या सुननेवालों का घोर पतन करते हैं । ज्ञानीजन इसलिए शब्दातीत होकर मर में तल्लीन होते हैं और आत्मसमाधि का आनन्द पाते हें । यदि जनता को जिसकी उसे भूख है प्यास है ऐसा स्वरशब्द का संगीत देना हो और उसे पतन से बचाना हो तो सूरदासजी और ऐसे ही अन्य महान् गायककवियों के पदों का संगीतकरण करके वह संगीत उन्हें दिया जाए सुनाया जाए सिखाया जाए । मेरा विश्वास है कि यदि ऐसा किया गया तो सिनेमा वाले भी दौड़ते हुए इस ओर झुकेंगे और भारत की जनता को पतित होने से बचाकर ऐसे सगीत द्वारा उनके हृदय को दिव्यस्थापनापन्न करने का एक भव्य स्वप्न सिद्ध किया जा सकेगा । प्रात स्मरणीय पूज्यपाद गुरुदेव श्री विष्णुदिगम्बर जी ने कुछ बेसमझ गायकों के पण्डित जी तो अब गायक नहीं रहे, भजनीकबन गऐ ऐसे उलाहने सहकर भी सूर तुलसी मीरा कबीर आदि के पदों को अपने संगीत में हेतुपूर्वक स्थान दिया था और जीवनभर उसे निभाया था । उनके शिष्यप्रशिष्यों में भी वही संस्कार अवतरित हुए हैं और वे इन महाकवियों के पदलालित्य का पूर्ण भाव अपने कण्ठ से ललकार कर जनता की आत्मा तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं ।
संगीतकार्यालय के संचालकों ने सूरसंगीत के द्वारा वही लोकोत्तर कार्य आरम्म किया है । मैं उनके इस प्रशंसनीय प्रयास का स्वागत करता हूँ और समादर के साथ उसकी सफलता चाहता हूँ ।
प्रकाशक की ओर से
भक्त रसिकों की सेवा में सूरसंगीत प्रस्तुत है । इसका प्रकाशन लगभग पचास वर्ष पूर्व हुआ था, लेकिन बीच में कुछ काल के लिए यह ग्रन्थ अप्राप्य रहा । पाठकों के विशेष आग्रह पर अब इसके पूर्व दोनों भागों को एक में समाहित करके प्रकाशित किया जा रहा है जिसमें माला के मनकों की तरह नवीन और पुराने चुने हुए 108 सूर पदों को दिया जा रहा है ।
सूरसंगीत में हमें डॉ लक्ष्मीनारायण गर्ग के अतिरिक्त जिन रचनाकारों से सहायता मिली है, उनके नाम हैं बनवारीलाल भारतेन्दु स आ महाडकर, वी आर सन्त, एम वी गुणे वी जी रिगे हीरालाल श्रीवास्तव और देवकीनन्दन धवन ।
आज के तमोगुणी और रजोगुणी वातावरण में सूरसंगीत का सतोगुणी प्रयास कितना सार्थक सिद्ध होगा यह तो समय ही बतायेगा, परन्तु हम इसे भगवान श्यामसुन्दर द्वारा प्रदत्त प्रेरणा का परिणाम मानते हैं अत उसी के बालस्वरूप को यह कृति भेंट करते
पद सूची
1
अब कैं सखि लेहु भगवान
13
2
अब धी कहौ कौन दर जाऊँ
15
3
अब मेरी राखौ लाज मुरारी
17
4
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल
20
5
अब मैं जानी देह बुढ़ानी
22
6
अब मोहि सरन राखिये नाथ
25
7
अब हौं माया हाथ बिकानौं
28
8
अब हौं हरि सरनागत आयौ
30
9
अंत के दिन कौं हैं घनस्याम
32
10
अबिगतगति कछु कत न आवै
34
11
आजु हौं एकएक करि टरिहौं
36
12
ऐसे प्रभु अनाथ के स्वामी
38
क्यौं तू गोविंद नाम बिसारौ
41
14
कहन लागे मोहन मैयामैया
43
कहा कमी जाके राम धनी
45
16
कहा गुन बरनी स्याम तिहारे
48
कहावत ऐसे त्यागी दानि
51
18
काया हरि कैं काम न आई
53
19
काहू के कुल तन न बिचारत
56
कौन सुनै यह बात हमारी
58
21
खेलत नँदआँगन गोबिन्द
60
गुरु बिनु ऐसी कौन करै
62
23
गोकुल प्रगट भए हरि आइ
64
24
गोविन्द प्रीति सबनि की मानत
66
चरनकमल बंदौं हरिराइ
69
26
जग में जीवत ही कौ नातौ
71
27
जनम तौ ऐसेहिं बीति गयी
74
जसोदा हरि पालनैं झुलावै
76
29
जा दिन मन पंछी उड़ि जै है
79
जैसैं तुम गज कौ पाउँ छुड़ायी
81
31
जो धट अन्तर हरि सुमिरै
83
जौ हम भले बुरे तौ तेरे
85
33
जौ अपनी मन हरि सी राँचै
87
जौ तू रामनामधन धरतौ
89
35
जौ प्रभु मेरे दोष बिचारैं
92
जौ हरिब्रत निज उर न धरैगौ
95
37
ठाढ़ी कृश्नकृश्न यों बोलै
97
तजौ मन, हरिबिमुखनि की संग
99
39
तुम्हरैं भजन सबहि सिंगार
101
40
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान
103
तुम्हरी कृपा बिनु कौन उबारे
105
42
तुम तजि और कौन पै जाऊँ
108
तुम प्रभु मोसी बहुत करी
110
44
तिहारे आगैं बहुत नच्यौं
112
नर तैं जनम पाइ कह कीनौ
114
46
निबाही बाहँ गहे की लाज
116
47
प्रभु जु तुम हौ अन्तरजामी
113
प्रभु, तुम दीन के दुखहरन
121
49
प्रभु तेरी वचन भरोसौ साँचौ
123
50
प्रभु मेरे, मोसी पतित उधारौ
125
प्रभु हौं बड़ी बेर कौ ठाढ़ौ
127
52
प्रीतम जानि लेहु मन माही
129
बड़ी है रामनाम की ओट
131
54
बासुदेव की बड़ी बड़ाई
133
55
बिनती करत मरत हौं लाज
135
बिरवा जन्म लियौ संसार
137
57
बंदी चरनसरोज तिहारे
140
भक्तबछल प्रभु, नाम तुम्हारी
142
59
भजहु न मेरे स्याम मुरारी
144
भजि मन, नन्दनन्दनचरन
146
61
भरोसौ नाम कौ भारी
150
भावी काहू सौं न टरै
152
63
मन, तीसी किती कही समुझाइ
155
मन, तोसी कोटिक बार कही
157
65
माधौ सु मन मायाबस कीन्हौ
159
माधौ जू, मोहि काहे की लाज
161
67
मेरी मन अनत कहीं सुख पावै
163
68
मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी
165
मैया मैं नहिं माखन खायो
167
70
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो
169
मो सम कौन कुटिल खल कामी
172
72
मोसौ पतित न और हरे
174
73
मोसी बात सकुच तजि कहियै
176
मोहन के मुख ऊपर बारी
178
75
मोहि प्रभु तुमसौं होड़ परी
180
रखो मन सुमिरन कौ पछितायौ
182
77
राम न सुमर्यौ एक घरी
184
78
रे मन, अजहूँ क्यौं न सम्हारै
186
रे मन, आपु कौं पहिचानि
188
80
रे मन, गोबिंद के है रहियै
190
द रे मन, जग पर जानि ठगायौ
192
82
रे मन, रामं सौं करि हेत
194
रे सठ, बिनु गोबिंद सुख नाहीं
196
84
रे मन, समुझि सोचविचारि
198
लाज मेरी राखौ स्याम हरी
201
86
स्याम भजनबिनु कौन बड़ाई
203
सब तजि भाजऐ नदकुमार
205
88
सबै दिन एकैसे नहिं जात
207
बद सबै दिन गए विषय के हेत
210
90
दे सरन गए की, को न उबारच्यौ
213
91
हमारी तुमकी लाज हरी
215
दर हमारे निर्धन के धन राम
217
93
हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ
219
94
हमैं नँदनन्दन मील लिये
221
हरि किलकत जसुमति की कनियाँ
222
96
हरि जू तुमतैं कहा न होइ
224
दक हरि तुम क्यी न हमारे आए
226
98
हरि, तुम बलि की छील क्या लीन्यौ
229
हरि, तेरौ भजन कियौ न जाइ
231
100
हरि दिन अपनौ को संसार
233
हरि बिन कोऊ काम न आबो
235
102
हरि बिन मीत नहीं कोउ तेरे
238
हरि सों ठाकुर और न जन कीं
240
104
हरि सी मीत न देख्यौ कोई
242
हृदय की कबहुँ न जरनि घटी
244
106
होठ मन, रामनाम को गाहक
246
107
हीं इक ई बात सुनि आई
248
है हरि भजन कौ परमान
250
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