पुस्तक के विषय में
वरिष्ठ उपन्यासकार कमलेश्वर का यह उपन्यास एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था की वकालत करता है जिसमें अपने बैरियों के लिए भी स्नेह व सम्मान की गुंजाइश हो।
इस उपन्यास का कथा-फलक यों तो विस्तृत है लेकिन कमलेश्वर जी ने अपने रचनात्मक कौशल से इसे जिस तरह कम शब्दों में सम्भव किया है, वह काबिले-तारीफ़ है।
इस उपन्यास में स्वाधीनता संघर्षकाल से लेकर सती-प्रथा विरोध तक की अनुगूँजे सुनी जा सकती हैं।
इसमें अंग्रेज सिपाहियों की क्रूरता और रूढ़िवादी पारम्पारिक समाज में विधवा स्त्री की त्रासद स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है जो पाठकों के मन में करुणा का भाव जगाता है। लोकप्रिय रचनाकार की कलम से निकली एक अनूठी कृति।
कमलेश्वर: जन्म:- 6 जनवरी, 1952 (मैनपुरी, उ.प्र.) ।
शिक्ष: एम.ए. (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) ।
प्रकाशित रचनाएँ:- कहानी-संग्रह राजा निरबंसिया और कस्बे का आदमी, मांस का दरिया, खोई हुई दिशाएँ, बयान, जॉर्ज पंचम की नाक, आजादी मुबारक, कोहरा, कितने अच्छे दिन, मेरी प्रिय कहानियाँ, मेरी प्रेम कहानियाँ।
उपन्यास एक सड़क : सत्तावन गलियाँ, डाक-बंगला, तीसरा आदमी, समुद्र में खोया हुआ आदमी, लौटे हुए मुसाफिर, काली आँधी, वही बात, आगामी अतीत, सुबह दोपहर शाम, ।
एक और चन्द्रकान्ता, कितने पाकिस्तान, पति पली और वह । समीक्षा नई कहानी की भूमिका, नई कहानी के बाद, मेरा पन्ना, दलित साहित्य की भूमिका।
नाटक अधूरी आवाज, चारुलता, रेगिस्तान, कमलेश्वर के बाल नाटक ।
यात्रा-संस्मरण खंडित यात्राएँ, अपनी निगाह में ।
आत्मकथा जो मैंने किया, यादों के चिराग, जलती हुई नदी ।
सम्पादन:- मेरा हमदम : मेरा दोस्त तथा अन्य संस्मरण, समानान्तर-1, गर्दिश के दिन, मराठी कहानियाँ, तेलगू कहानियाँ, पंजाबी कहानियाँ, उर्दू कहानियाँ । सम्मान शलाका पुरस्कार, शिवपूजन सहाय शिखर सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार । निधन 27 जनवरी, 2007
आवरण :- देब प्रकाश चौधरी चित्रकार व पत्रकार । देश की कई महत्वपूर्ण कला प्रदर्शनियों में हिस्सेदारी और पुरस्कृत । कला आलोचना में सक्रिय । कई भाषाओं के लिए तीन सौ से ज्यादा किताबों और । पत्रिकाओं के आवरण बनाए । फिल्मों के लिए लेखन । भारत सरकार के संकृति मत्रालय मे फैलोशिप । सालों तक प्रिंट मीडिया में काम करने के बाद साल 2004 से टी.वी पत्रकारिता में ।
अम्मा : कुछ शब्द यह सिने-उपन्यास है । इसकी रचना की प्रक्रिया और प्रयोजन उन उपन्यासों से एकदम अलग है जो मैंने अपनी अनुभवजन्य संवेदना के तहत लिखे हैं । अत: यह कहने में मुझे संकोच नहीं है कि यह उपन्यास मेरे आन्तरिक अनुभव और सामाजिक सरोकारों से नहीं जन्मा है और इसका प्रयोजन और सरोकार भी अलग है । इसे लिखने का ढब और तरीका भी दूसरा है । इसकी सामाजिकता सिने-माध्यम की आवश्यकता तक सीमित है, लेकिन वह गैर-ज़रूरी नहीं है । वह सिने-माध्यम तक सीमित जरूर है पर बाधित नहीं हिन्दी फ़िल्मों की दुनिया हमारी लोक-संस्कृति की नई दुनिया है । पूरी तरह से यह मात्र मनोरंजन और व्यावसायिक सरोकारों की प्रदर्शन-केन्द्रित मायावी दुनिया ही नहीं है, यह अपने समय के मनुष्य के दुःख-सुख, घटनाओं-परिघटनाओं के सार्थक प्रस्तुतीकरण के साथ ही प्रश्नों और सपनों का संसार भी है । अक्षर ज्ञान से रिक्त दर्शक के लिए इसे प्रस्तुत करने में रचनात्मक श्रम की बेहद जरूरत पड़ती है।
यह उपन्यास साहित्य के स्थायी या परिवर्तनशील रचना विधान और शास्त्र की परिधि में नहीं समाएगा क्योंकि यह सिने-शास्त्र के अधीन लिखा गया है । यह फ़िल्म के तकनीकी रचना विधान की ज़रूरतों को पूरा करता है जिस पर फ़िल्मी पटकथा आश्रित रहती है । यह सिने-कथा भी ऐसे ही लिखी गई । भारतीय भाषाओं और हिन्दी की बहुत-सी फ़िल्में अपने दौर के कालजयी साहित्यिक उपन्यासों पर आधारित रही हैं, लेकिन जब फ़िल्मों ने नितांत अपना स्वतन्त्र कथा-संसार बनाया तो उसके लिए उपन्यास और कथा-विधा का सहारा लिया जाना जरूरी हुआ, उसी का परिणाम है यहसिन-उपन्यास! तो यह अम्मा उपन्यास भी मूलत: फ़िल्म के लिए ही लिखा गया । इसके निर्माता-निर्देशक कृष्ण शाह थे, जो अमेरिका मैं रहते हुए अंग्रेजी फ़िल्में बनाते हैं।
इस फ़िल्म की मुख्य भूमिका राखी ने निभाई थी । अन्य महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं में मिथुन चक्रवर्ती, सुरेश ओबराय, अमोल पालेकर आदि थे । फ़िल्म और मीडिया लखन का बहुत वड़ा क्षैत्र आज के नए लेखकों के सामने मौजूद है । यह सिने-उपन्यास पढ़ने के लिए तो है ही, यह फ़िल्म-लेखन की विधा को समझने-समझाने में भी सहायक हो सकता है । इन्हीं शब्दों कै साथ यह नए पाठकों और फ़िल्म-विधा के लेखन में शामिल होने के इच्छुक नए लेखकों को समर्पित है!
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